NCERT Solutions for Class 12 Sanskrit Chapter 3 राष्ट्रचिन्ता गरीयसी (राष्ट्र की चिन्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है)
पाठपरिचयः सारांश: च
प्रस्तावना चन्द्रगुप्तस्य राज्ये तस्य अमात्यः चाणक्यः सर्वदा देशहिताय एव प्रयत्नं करोति। तदर्थं स सम्राजः चन्द्रगुप्तस्य आदेशस्य उल्लङ्घनम् अपि कर्तुम् उत्सहते स्म। देशस्य कृते एव प्रजाधनस्य सदुपयोगः स्यात् इति शिक्षयति एषः नाट्यांशः। एषः अंशः ‘मुद्राराक्षसम्’ इति संस्कृतनाटकात् सङ्कलितः।
हिन्दी रूपांतरण-चन्द्रगुप्त के राज्य में उसका मन्त्री चाणक्य सदा देशहित में ही प्रयत्नशील था। उसके लिए वह सम्राट चन्द्रगुप्त के आदेश का उल्लंघन करने का भी उत्साह एवं साहस कर लेता था। ‘देश के लिए ही प्रजाधन का उपयोग होना चाहिए’, यह शिक्षा इस नाटयांश से मिलती है। चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त के चरित्र सम्बन्धी अनेक बातों का परिचय भी मिलता है।
पाठ-संदर्भ
प्रस्तुत नाटयांश विशाखदत्तकृत संस्कृत नाटक ‘मुद्राराक्षस’ के तृतीय अंक को संक्षिप्त में संपादित करके पाठ्यपुस्तक में ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ (राष्ट्र की चिन्ता अधिक बड़ी होती है’) शीर्षक के अन्तर्गत लिया गया है। चाणक्य के लिए चन्द्रगुप्त सम्राट् की इच्छाओं की पूर्ति की अपेक्षा राष्ट्र की चिन्ता का अधिक महत्त्व है, अतः पाठ का शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है।
पाठ-सार
नाटयांश के तीन दृश्य हैं। प्रथम दृश्य में सर्वप्रथम कञ्चुकी आकाशभाषित द्वारा यह जान जाता है कि सुगाङ्गप्रासाद को देखने हेतु चन्द्रगुप्त पधार रहे हैं, पर किसी ने उस प्रासाद की सज्जा को रुकवा दिया है। चन्द्रगुप्त की आज्ञा से सज्जा का काम पुनः चालू कर दिया जाता है। प्रथम दृश्य में चन्द्रगुप्त कञ्चुकी के द्वारा सङ्केत मिलने पर कि कौमुदी महोत्सव को चाणक्य ने रोक दिया है, उसे चाणक्य के पास उसे बुलाने हेतु भेजता है। दूसरे दृश्य में कञ्चुकी चाणक्य के निवास स्थान के वर्णन पर टिप्पणी करता है कि निस्पृह त्यागी लोगों के द्वारा ही राजा तृणवत् समझा जाता है। कञ्चुकी चाणक्य को राजा का सन्देश देता है तथा चाणक्य कञ्चुकी को चन्द्रगुप्त के सुगाङ्ग प्रासाद का मार्ग उन्हें दिखाने का आदेश देते हैं।
तृतीय दृश्य में राजा आसन से उठकर आचार्य चाणक्य को प्रणाम करते हैं। चाणक्य अपने बुलवाए जाने का कारण पूछते हैं। बीच में दो वैतालिक आकर काव्यपाठ करते हैं। राजा उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्रा देने की आज्ञा देते हैं। चाणक्य इसे भी धन का अपव्यय मानकर रुकवा देते हैं। चन्द्रगुप्त अपनी स्वतन्त्रता के इस बन्धन से क्रुद्ध होते हैं, पर चाणक्य उसे समझाते हैं कि पर्वतक का पुत्र मलयकेतु हम पर आक्रमण करनेवाला है। अतः यह उत्सव मनाने का अवसर नहीं है अपितु दुर्ग का परिष्कार कर सेना को युद्ध के लिए तैयार करने का समय है इसीलिए मैंने कौमुदी महोत्सव को भी रुकवा दिया है। पहले राष्ट्र संरक्षण, बाद में उत्सव। राष्ट्रचिन्तन उत्सव से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
मूलपाठः, शब्दार्थः, सरलार्थश्च
1. (स्थानम्-कुसुमपुरे चन्द्रगुप्तस्य प्रासादः)
(कञ्चुकी प्रविशति)
कञ्चुकी – (परिक्रम्य, आकाशम् उद्वीक्ष्य) भोः भोः प्रासादाधिकृताः पुरुषाः! देवः चन्द्रगुप्तः वः विज्ञापयति-कौमुदीमहोत्सव-कारणतः अतिरमणीयं कुसुमपुरम् अवलोकयितुम् इच्छामि इति। अतः सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि स्थिताः प्रदेशाः संस्क्रियन्ताम्।
(पुनः आकाशे) किं ब्रूथ? कौमुदी-महोत्सवः प्रतिषिद्धः? आः किम् एतेन वः प्राणहरेण कथाप्रसङ्गेन? यथा आदिष्टं, चन्दनवारिणा भूमिं शीघ्रं सिञ्चन्तु। पुष्पमालाभिः स्तम्भान् अलङ्कुर्वन्तु। किं ब्रूथ? आर्य! इदम् अनुष्ठीयते देवस्य शासनम् इति। भद्राः! त्वरध्वम् त्वरध्वम्। अयमागतः एव देवः चन्द्रगुप्तः।
(नेपथ्ये) इत इतो देवः।
(ततः प्रविशति राजा प्रतिहारी च)
राजा – (स्वगतम्) अहो! राज्यं हि नाम धर्मवृत्तिपरकस्य नृपस्य कृते महत् कष्टदायकम्। दुराराध्या हि राजलक्ष्मीः। (प्रकाशम्) आर्य वैहीनरे! सुगाङ्गमार्गम् आदेशय।
कञ्चुकी – इत इतो देवः। (नाट्येन परिक्रम्य) अयं प्रासादः। शनैः आरोहतु देवः।
राजा – (नाट्येन आरुह्य) आर्य! अथ अस्मद्वचनात् आघोषितः कुसुमपुरे कौमुदीमहोत्सवः?
कञ्चुकी – अथ किम्। राजा – तत्कथं कौमुदीमहोत्सवः न प्रारब्धः?
कञ्चुकी – एवम् एतत्।
राजा – किम् एतत्?
कञ्चुकी – देव! एतत् इदम्।
राजा – स्पष्टं कथय।
कञ्चुकी – अथ प्रतिषिद्धः कौमुदीमहोत्सवः।
राजा – (सक्रोधम्) आः, केन?
कञ्चुकी – देव! न अतः परं विज्ञापयितुं शक्यम्।
राजा – न खलु आर्यचाणक्येन अपहृतः प्रेक्षकाणाम् अतिशयरमणीयः चक्षुषो विषयः?
कञ्चुकी – देव! कः अन्यः जीवितुकामो देवस्य शासनम् अतिवर्तेत?
राजा – (नाट्येन उपविश्य) आर्य! आचार्यचाणक्यं द्रष्टुम् इच्छामि।
कञ्चुकी – यथा आज्ञापयति देवः। (इति निष्क्रान्तः) ।
शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- परिक्रम्य- परिभ्रम्य (परि + क्रम् + ल्यप), घूमकर। उद्वीक्ष्य- उपरि दृष्ट्वा, (उत् + वि + ईक्ष् + ल्यप्) ऊपर देखकर। अधिकृताः- कर्मचारिणः (अधि + कृताः, प्रथमा, बहुवचनम्), कर्मचारी गण। वः- युष्मभ्यम् (युष्मद्, चतुर्थी, बहुवचनम्), तुम्हारा। अवलोकयितुम्- द्रष्टुम् (अव+लोक्+तुमुन्), देखने के लिए। संस्क्रियन्ताम्- अलङ्क्रियन्ताम् (सम् + कृ, लोट, प्र०, बहुवचनम्), सजाये जाएँ। कौमुदीमहोत्सवः- शरत्पूर्णिमोत्सवः (कौमुद्याः महोत्सवः), शरत्पूर्णिमा का आयोजन। प्रतिषिद्धः- निषिद्धः (प्रति+सिध्+क्त), रोक दिया गया। प्राणहरेणप्राण-अपहारकेण (प्राणान् हरति, तेन), प्राणों को हरनेवाले। कथा प्रसङ्गेन- वार्तया (कथायाः प्रसङ्गेन), कथा-प्रसंग (वार्ता) से। अनुष्ठीयते- सम्पाद्यते (अनु + स्था (यक) लट्), (प्र०पु०, एकवचनम्), कार्य सम्पन्न किया जाता है। त्वरध्वम्शीघ्रतां कुरुत (त्वर, लोट, म०पु०, बहुवचनम्), जल्दी करो। दुराराध्या- कपटैः उपास्या (दुः + आ + राध् + क्यन्), कठिनता से प्रसन्न होनेवाली। विज्ञापयितुम्- निवेदनम्, (वि + ज्ञा + णिच् + तुमुन्), निवेदन करना। अपहृतः- नाशितः दूरीकृतः (अप + ह + क्त), छीन लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत नाट्यांश ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ विशाखदत्तकृत ‘मुद्राराक्षसम्’, नाटक के तृतीय अंक का सम्पादित एवं संक्षिप्त किया गया अंश है (सभी पद्यों को इसमें से हटा दिया गया है तथा भाषा को भी आवश्यकतानुसार सरल किया गया है।) प्रस्तुत अंश में कुसुमपुर में चन्द्रगुप्त के महल में कञ्चुकी तथा प्रासाद के अधिकारियों से बात कर रहा है। फिर नेपथ्य में प्रतिहारी राजा को ‘इत इतो देवः’ कहकर आदेश देता है। दोनों के प्रवेश के बाद राजा और कञ्चुकी का वार्तालाप है। कञ्चुकी अपने मुँह से नहीं बताता कि चन्द्रगुप्त के द्वारा आघोषित कौमुदी महोत्सव का आयोजन किसलिए रद्द, किया गया है पर राजा स्वयं समझ लेता है कि आचार्य चाणक्य ने लोगों के नेत्रों को आनन्द देनेवाला कौमुदी महोत्सव का प्रसंग रुकवा दिया है। अन्त में राजा चन्द्रगुप्त आचार्य चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट करते हैं।
भावार्थ – प्रस्तुत सन्दर्भ में राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा के उल्लंघन से राजा के क्रुद्ध होने तथा परिणामस्वरूप उसके द्वारा आर्य चाणक्य को बुलवाने का प्रसंग है।
सरलार्थ –
(स्थान-कुसुमपुर में चन्द्रगुप्त का महल) (कञ्चुकी प्रवेश करता है)
कञ्चुकी – (घूमकर, आकाश की ओर ऊपर देखकर) अरे, अरे, महल के कर्मचारीगणो! महाराज चन्द्रगुप्त आपको
सूचित करते हैं कि “मैं कौमुदी महोत्सव के कारण से अतीव रमणीय (सजे-धजे) कुसुमपुर को देखना चाहता हूँ। इसलिए सुगाङ्ग-महल के ऊपरी ओर स्थित भाग अच्छी तरह सजाये जाएँ।” (फिर, आकाश की ओर/सुनकर) तुमने क्या कहा? क्या कौमुदी महोत्सव को मना कर दिया गया? अरे, ऐसे तुम्हारे प्राणों का हरण करने वाले इस बात से क्या प्रयोजन? (अर्थात् ऐसी बात मत करो जिससे तुम्हारे प्राण हर लिए जाएँ)। जैसा आदेश दिया गया है, (तदनुसार) चन्दन के जल से शीघ्र भूमि का सिञ्चन करें। फूलों की मालाओं से स्तम्भों (खम्भों) को अलङ्कृत (सुशोभित) करें। क्या कहते हो? महाराज की इस आज्ञा का पालन किया जा रहा है। भद्र (भले) पुरुषों! जल्दी करो, जल्दी करो। यह महाराज चन्द्रगुप्त आ ही रहे हैं। (नेपथ्य में) महाराज इधर से आयें, इधर से। [उसके बाद राजा और प्रतिहारी (द्वारपाल) प्रवेश करते हैं।]
राजा – (मन ही मन) राजधर्म का पालन करनेवाले राजा के लिए राज्य निश्चय ही बहुत कष्ट देनेवाला है।
राजलक्ष्मी को प्रसन्न रखना कठिन है। (सुनाकर) आर्य वैहीनरी! सुगाङ्ग (प्रसाद) के मार्ग की ओर चलना है।
कञ्चुकी – इधर से आवें महाराज! (अभिनय से, घूमकर) यह महल है। महाराज धीरे से चढ़ें।
राजा – (अभिनयपूर्वक चढ़कर) आर्य, तो क्या हमारी आज्ञा से कुसुमपुर में कौमुदी महोत्सव की पूरी तरह घोषणा कर दी गई थी?
कञ्चुकी – जी हाँ।
राजा – तो कौमुदी महोत्सव को प्रारम्भ क्यों नहीं किया गया है?
कञ्चुकी – ऐसी ही बात है। राजा – क्या ऐसी बात है।
कञ्चुकी – महाराज! यह ऐसा है।
राजा – साफ-साफ कहो।
कञ्चुकी – कौमुदी महोत्सव को मना कर दिया गया है।
राजा – (क्रोध के साथ) अरे! किसके द्वारा।
कञ्चुकी – महाराज, इससे आगे नहीं बताया जा सकता।
राजा – क्या निश्चय ही आर्य चाणक्य के द्वारा दर्शकों के लिए अत्यन्त आनन्ददायक दर्शनीय विषय छीन लिया गया?
कञ्चुकी – महाराज! और दूसरा कौन महाराज की आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है।
राजा – (अभिनयपूर्वक बैठकर) आर्य मैं आचार्य चाणक्य से मिलना चाहता हूँ।
2 (ततः प्रविशति आसनस्थः स्वभवनगतः चिन्तां नाटयन् चाणक्यः)
चाणक्यः – (आकाशे लक्ष्यं बद्ध्वा) कथं स्पर्धते मया सह दुरात्मा राक्षस:? राक्षस! राक्षस! विरम विरम अस्माद्
दुर्व्यसनात्। कञ्चुकी – (प्रविश्य) (परिक्रम्य अवलोक्य च) इदम् आर्यचाणक्यस्य गृहम्। अहो राजाधि-राजमन्त्रिणो विभूतिः।
तथाहि गोमयानाम् उपलभेदकम् एतत् प्रस्तरखण्डम्, इतः शिष्यैः आनीतानां दर्भाणां स्तूपः, अत्र शुष्यमाणैः समिद्भिः अतिनमितः छदिप्रान्तः, जीर्णाः भित्तयः। अतएव निस्पृहत्यागिभिः एतादृशैः जनैः राजा तृणवत् गण्यते। (भूमौ निपत्य) जयतु आर्यः।
चाणक्यः – वैहीनरे! किम् आगमन-प्रयोजनम्?
कञ्चुकी – आर्य! देवः चन्द्रगुप्तः आर्य शिरसा प्रणम्य विज्ञापयति-यदि कार्ये बाधा न स्यात् तर्हि आर्य द्रष्टुम् इच्छामि।
चाणक्यः – एवम्! वृषलः मां द्रष्टुम् इच्छति। वैहीनरे! किं ज्ञातः कौमुदीमहोत्सव-प्रतिषेधः?
कञ्चुकी – अथ किम्!
चाणक्यः – केन कथितम्?
कञ्चुकी – स्वयमेव देवेन अवलोकितम्।
चाणक्यः – आः ज्ञातम्! भवद्भिः एव प्रोत्साह्य कोपितः वृषलः। किम् अन्यत्?
कञ्चुकी – (भयं नाटयन्) आर्य, देवेन एव अहम् आर्यस्य चरणयोः प्रेषितः।
चाणक्यः – कुत्र वर्तते वृषलः?
कञ्चुकी – सुगाङ्गप्रासादे।
चाणक्यः – सुगाङ्गप्रासादस्य मार्गम् आदेशय।
कञ्चुकी – इतः इतः आर्य! (उभौ परिक्रामतः)
शब्दार्थ – पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्च:- प्रेक्षकाणाम्- दर्शकानाम् (प्रेक्षक, षष्ठी, बहुवचनम्), दर्शकों का।
जीवितुकाम – जीवितुम् इच्छन् (जीवितुं कामः यस्य), जीना चाहनेवाला। अतिवर्तेत-उल्लंघनं कुर्यात् (अतिवृत् वि० लि०), उल्लंघन करे। दुर्व्यसनात्-अपहरणव्यापारात् (दुष्टं व्यवसनं इच्छा तस्मात्), मौर्यों की राजलक्ष्मी को छीनने की इच्छा।
विभूति – सम्पत्तिः (वि + भू + क्तिन्), ऐश्वर्य। गोमयानाम् – उपलानाम् पुरीषाणाम् (गोमयं, षष्ठी, बहुवचनम्), गोबर के उपलों को, भेदकम्- त्रोटकम् (भेदं करोति उपपद तत्पुरुष) तोड़नेवाला, स्तूपम्- समूहः (पुल्लिग, एकवचनम्), ढेर। जीर्णाः- पुरातनाः (जृ + क्त प्र०, बहुवचनम्), टूटी-फूटी, वृषल:- राजसु श्रेष्ठः (राज्ञां वृषः श्रेष्ठः) राजाओं में श्रेष्ठ, प्रोत्साह्य – उत्तेजकवचनैः उद्दीप्य (प्र + उत् + सह् + णिच, ल्यप्)। उकसा करके।
प्रसंग – प्रस्तुत नाट्यांश पाठ्यपुस्तक के ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ पाठ से लिया गया है। मूलतः इसे ‘विशाखदत्त’ कृत मुद्राराक्षसम् नाटक से संकलित किया गया है। इस पाठांश में अपनी कुटिया में बैठे चाणक्य को राक्षस की कुचालों के बारे में विचारमग्न होते दिखाया गया है। बाद में कञ्चुकी चाणक्य के भवन का वर्णन करते हैं और उन्हें चन्द्रगुप्त का आदेश सुनाते हैं। अन्त में चाणक्य चन्द्रगुप्त से मिलने चल पड़ते हैं। कञ्चुकी उन्हें मार्ग दिखाता है।
भावार्थ – कञ्चुकी तथा चाणक्य के संवाद के माध्यम से चाणक्य की दिनचर्या, गुण, स्वभाव आदि पर प्रकाश डाला गया है।
सरलार्थ – उसके बाद आसन पर बैठा (विराजमान), अपने घर (कुटी) में चिंता का अभिनय करता हुआ चाणक्य का प्रवेश।
चाणक्य – (आकाश में एकटक लक्ष्य बाँधकर देखता हुआ-यह दुष्ट राक्षस मेरे साथ कैसे बराबरी करता है? अरे राक्षस! अरे राक्षस! अभी भी मौर्य राजलक्ष्मी को छीनने की इन कुचालों से अपने को हटा ले ये दुष्कर्म करने बन्द कर दे)।
कञ्चुकी – (प्रवेश करके) (घूमकर और देखकर) यह आर्य चाणक्य का घर है। अहो, राजाधिराज (सम्राट) के मन्त्री की ऐसी विभूति (ऐश्वर्य)! (एक ओर तो) यह सूखे गोबर के कंडों (उपलों) को तोड़नेवाला यह पत्थर का टुकड़ा पड़ा है। इधर शिष्यों के द्वारा लाई गई कुशाओं का ढेर पड़ा है। यहाँ सुखाई जाने वाली समिधाओं (यज्ञ की लकड़ियों) से बहुत झुका हुआ छप्पर (छत का एक कोना) है। दीवारें पुरानी तथा टूटी-फूटी हैं। इसलिए इच्छारहित ऐसे त्यागी लोगों के द्वारा राजा तिनके के समान माना (जाता है। भूमि पर गिरकर) आर्य की जय हो।
चाणक्य – अरे वैहीनरी! आने का क्या हेतु है?
कञ्चुकी – आर्य, महाराज चन्द्रगुप्त ने आपको अपना सिर झुकाकर निवेदन किया है कि यदि कार्य में रुकावट न हो तो मैं आर्य से मिलना चाहता हूँ।
चाणक्य – ऐसा (है)। वृषल मुझसे मिलना चाहता है। क्या कौमुदी महोत्सव को रोक देने का उसे पता लग गया है?
कञ्चुकी – जी हाँ!
चाणक्य – किसने बतलाया?
कञ्चुकी – स्वयं ही महाराज ने देख लिया।
चाणक्य – हाँ, समझ गया। आप लोगों के द्वारा ही उकसाकर वृषल को क्रोधित किया गया है। और क्या है?
कञ्चुकी – (भय का अभिनय करके) आर्य, महाराज के द्वारा ही मुझे आप (आर्य) के चरणों में भेजा गया है।
चाणक्य – कहाँ पर है वृषल?
कञ्चुकी – सुगाङ्ग महल में।
चाणक्य – सुगाङ्ग महल का मार्ग दिखाओ।
कञ्चुकी – इधर, इधर से आर्य। (दोनों परिक्रमा करते हैं-घूमते हैं)
3. कञ्चुकी – एष सुगाङ्गप्रासादः।
चाणक्यः – (नाट्येन आरुह्य अवलोक्य च) अये सिंहासनम् अध्यास्ते वृषल:! (उपसृत्य) विजयताम् वृषलः।
राजा – (आसनाद् उत्थाय) आर्य। चन्द्रगुप्तः प्रणमति। (इति पादयोः पतति)
चाणक्यः – (पाणौ गृहीत्वा) उत्तिष्ठ, उत्तिष्ठ, वत्स! विजयताम्।
राजा – आर्यप्रसादात् अनुभूयत एव सर्वम्। तदुपविशतु आर्यः।
चाणक्यः – वृषल! किमर्थ वयम् आहूताः?
राजा – आर्यस्य दर्शनेन आत्मानम् अनुग्रहीतुम्।
चाणक्यः – अलम् अनेन विनयेन। न निष्प्रयोजनं प्रभुभिः आहूयन्ते अधिकारिणः।
राजा – आर्य! कौमुदीमहोत्सवस्य प्रतिषेधे किं फलम् आर्यः पश्यति?
चाणक्यः – (स्मितं कृत्वा) उपालब्धुं तर्हि वयम् आहूताः।
राजा – शान्तं पापं, शान्तं पापम्। नहि, नहि, विज्ञापयितुम्।
चाणक्यः – यदि एवं तर्हि शिष्येण गुरोः आज्ञा पालनीया।
राजा – एवम् एतत्। कः सन्देहः? किन्तु न कदाचित् आर्यस्य निष्प्रयोजना प्रवृत्तिः। अतः पृच्छ्यते।
चाणक्यः – न प्रयोजनम् अन्तरा चाणक्यः स्वप्नेऽपि चेष्टते।
राजा – अतएव श्रोतुम् इच्छामि।
शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्च:- अध्यास्ते-अधि + आस्, लट्, प्रथम पुरुषः, एकवचनम्, उपविशति, बैठा है।
प्रभुभिः- प्रभु, तृतीया विभक्ति, बहुवचनम्, स्वामिभिः, स्वामियों के द्वारा।
विज्ञापयितुम् – वि, ज्ञा, णिच्, तुमुन्; निवेदयितुम्, सूचित करने के लिए, कहने के लिए। पृच्छ्यते – प्रच्छ्, कर्मवाच्य, लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचनम् प्रवृत्तिः- प्रवृत् + क्तिन्, प्रवृत्तिः, चेष्टा। अन्तरा- अन्तरा योगे द्वितीया, विना, बिना।
प्रयोगः- न प्रयोजनम् अन्तरा
चाणक्यः स्वप्नेऽपि चेष्टते। यहाँ प्रयोजनम् मे द्वितीया विभक्ति है। स्वप्नेऽपि- स्वप्ने + अपि। चेष्टते- चेष्ट, लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचनम् प्रवर्तते, कार्य करोति, काम करता है, चेष्टा करता है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह ‘विशाखदत्त’ कृत ऐतिहासिक नाटक ‘मुद्राराक्षसम्’ से लिया गया है। इस नाट्यांश में चाणक्य से नम्रतापूर्वक चन्द्रगुप्त पूछते हैं कि आपने किस फल को सम्मुख रख कर कौमुदी महोत्सव को रुकवाया है। चाणक्य चन्द्रगुप्त के विनय को देखकर उसे यह समझाते हैं कि बिना प्रयोजन के चाणक्य सपने में भी कोई काम नहीं करता।
सरलार्थकञ्चुकी – यह सुगाङ्ग महल है।
चाणक्य – (अभिनयपूर्वक चढ़कर और देखकर) अरे, सिंहासन पर वृषल विराजमान हैं। (पास जाकर) वृषल की
विजय हो।
राजा – (आसन से उठकर) आर्य! चन्द्रगुप्त प्रणाम करता है। (यह कहकर चरणों में झुकता है)
चाणक्य – (दोनों हाथ पकड़कर) उठो, उठो वत्स! तुम्हारी जय हो।
राजा – आर्य आपकी कृपा के कारण से ही यह सब अनुभव किया जा रहा है। आर्य, बैठ जाइए।
चाणक्य – हे वृषल! किसलिए हमें बुलाया गया है?
राजा – आपके दर्शन से स्वयं को अनुगृहीत (कृपापात्र) करने के लिए।
चाणक्य – यह विनय समाप्त करो। स्वामियों के द्वारा अधिकारी बिना प्रयोजन के नहीं बुलाए जाते।
राजा – हे आर्य! कौमुदी महोत्सव को रद्द करने में आर्य (आप) क्या लाभ देखते हैं?
चाणक्य – (मुस्कुराकर) तो उलाहना देने के लिए हमें बुलाया है।
राजा – पाप-भावना शान्त हो, पाप का शमन हो। (उलाहना देने के लिए) कदापि नहीं (अपितु) निवेदन (प्रार्थना) करने के लिए।
चाणक्य – यदि ऐसा है तो शिष्य को गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए। – ऐसा ही है। क्या सन्देह है? किन्तु, आर्य की कोई प्रवृत्ति कभी प्रयोजन के बिना नहीं होती। इसलिए पूछा जा रहा है।
चाणक्य – प्रयोजन के बिना तो चाणक्य स्वप्न में भी कोई चेष्टा नहीं करता।
राजा – इसीलिए मैं सुनना चाहता हूँ।
4. (नेपथ्ये वैतालिकौ काव्यपाठं कुरुतः)
राजा – आर्य वैहीनरे! आभ्यां वैतालिकाभ्यां सुवर्णशतसहनं दापय।
चाणक्यः – (सक्रोधम्) वैहीनरे! तिष्ठ तिष्ठ। न गन्तव्यम्। वृषल! किम् अस्थाने महान् प्रजा-धनापव्ययः?
राजा – (सक्रोधम्) आर्येण एव सर्वत्र निरुद्धचेष्टस्य मे बन्धनम् इव राज्यं, न राज्यम् इव।
चाणक्यः – वृषल! स्वयम् अनभियुक्तानां राज्ञाम् एते दोषाः सम्भवन्ति।
राजा – यद्येवं तर्हि कौमुदीमहोत्सव-प्रतिषेधस्य तावत् प्रयोजनं श्रोतुमिच्छामि।
चाणक्य – कौमुदीमहोत्सवस्य आयोजनस्य प्रयोजनं ज्ञातुमिच्छमि।
राजा – प्रथमं मम आज्ञायाः पालनम्।
चाणक्य – प्रथमं ममापि तव आज्ञाया: उल्लंघनम् एव। अथ अपरम् अपि प्रयोजनं श्रोतुमिच्छसि तदपि कथयामि।
राजा – कथ्यताम्।
चाणक्य – वत्स! श्रूयताम् अवधार्यताम् च। पितृवधात् क्रुद्धः राक्षसोपदेशप्रवणः महीयसा म्लेच्छबलेन परिवृतः पर्वतक-पुत्रः मलयकेतुः अस्मान् अभियोक्तुम् उद्यतः। सोऽयं व्यायामकालो, न उत्सवकालः इति। अतः इदानीं दुर्गसंस्कारः प्रारब्धव्यः। अस्मिन् समये किं कौमुदी-महोत्सवेन इति प्रतिषिद्धः। राष्ट्रचिन्ता ननु गरीयसी। प्रथम राष्ट्रसंरक्षणम् ततः उत्सवाः इति। (पटाक्षेपः)
शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- अस्थाने-न स्थाने, अनुचिते अवसरे, अनुचित स्थान पर। निरुद्धचेष्टस्य-निरुद्धा चेष्टा यस्य तस्य, अवरुद्धा गतिः यस्य तस्य, रुकी हुई गतिवाले की। अनभियुक्तानाम्-न अभियुक्तानाम्, स्वतन्त्रतायाः अवलम्बनं न कुर्वतां, स्वयं स्वतन्त्रता का अवलम्बन न करनेवाले। अवधार्यताम्-अव धृ+णिच्, कर्मवाच्य, लोट, प्र०पु०, ए०व०, ध्यानेन श्रूयताम्, ध्यान से सुनिये। राक्षसोपदेशप्रवणः-राक्षसस्य उपदेशे (उपदेशश्रवणे) प्रवणः तत्परः, राक्षस की राजनीति को मानने के लिए तैयार। अभियोक्तुम्-अभि युज्+तुमुन्, आक्रमितुम् आक्रमण करने के लिए। व्यायामकाल:-व्यायामस्य विशिष्टस्य आयामस्य अभ्यासस्य कालः अवसरः विशेष प्रयत्नों का समय। दुर्गसंस्कार-दुर्गस्य संस्कारः षष्ठी, तत्पुरुषः, सेना-संग्रह रूपस्य अवसरः। सेनासंग्रह आदि द्वारा किले की नाकाबन्दी (परिष्करण-संस्कार) आदि का अवसर।
भावार्थ – प्रस्तुत नाट्यांश में चाणक्य कहते हैं कि राष्ट्रचिन्ता, उत्सव से अधिक महत्त्व की होती है। पहले राष्ट्र के संरक्षण का कार्य होता है और उसके बाद उत्सव।
प्रसंग – प्रस्तुत नाट्यांश ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ से उद्धृत है। मूलतः यह ‘विशाखदत्त’ कृत ‘मुद्राराक्षस’ से सम्पादित किया गया है। प्रस्तुत नाट्यांश में चाणक्य वैतालिकों को दी जानेवाली एक लाख सुवर्ण मुद्राओं के अपव्यय को रुकवाते हैं तथा बाद में मलयकेतु के आक्रमण की सूचना के आधार पर दुर्गसंस्कार हेतु परामर्श देते हैं। कौमुदी महोत्सव को रुकवाने का कारण भी मलयकेतु के आक्रमण की सूचना थी।
सरलार्थ – (नेपथ्य में दो वैतालिक काव्यपाठ करते हैं।)
राजा – आर्य वैहीनरे! इन वैतालिकों को एक लाख सुवर्णमुद्राएँ दिला दो।
चाणक्य – (क्रोध के साथ) वैहीनरे, रुको रुको। मत जाओ। हे वृषल (राजश्रेष्ठ)! बिना प्रयोजन प्रजा के धन की महान् अपव्यय (फिजूलखर्ची) किसलिए है?
राजा – (क्रोध के साथ) आर्य के द्वारा ही सब जगह मेरी चेष्टाओं को रोकने के कारण मेरा राज्य बन्धन के समान है, राज्य के समान नहीं है।
चाणक्य – वृषल (राजश्रेष्ठ)! स्वयं स्वतन्त्रता का सहारा न लेने वाले राजाओं के लिए ये दोष (बन्धनादि) सम्भव
राजा – यदि ऐसा है तो मैं कौमुदी महोत्सव को रद्द करने का प्रयोजन सुनना चाहता हूँ।
चाणक्य – मैं कौमुदी महोत्सव के आयोजन का प्रयोजन जानना चाहता हूँ।
राजा – पहले मेरी आज्ञा का पालन होना चाहिए।
चाणक्य – मेरा प्रथम प्रयोजन तो यह भी है कि तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन ही करना है। और अगर दूसरा प्रयोजन सुनना चाहते हो तो उसे भी मैं कहता हूँ।
राजा – कहिए!
चाणक्य – वत्स (प्रिय शिष्य)! सुनिए और समझ लीजिए पिता की हत्या से क्रोधित हुआ, (तथा) (महामन्त्री) राक्षस के उपदेश में तल्लीन (बहका), महान् म्लेच्छ सेना से घिरा हुआ पर्वतक का पुत्र मलयकेतु हम पर आक्रमण करने के लिए तैयार है। अतः यह उद्योग करने का अवसर है, उत्सव मनाने का अवसर नहीं है। इसलिए अब सेना के संग्रह आदि के द्वारा किले की नाकाबन्दी आदि को प्रारम्भ कर देना चाहिए। इस समय कौमुदी महोत्सव से क्या लाभ? सही विचार कर उसे मना किया गया है। राष्ट्र की चिन्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। पहले राष्ट्र का संरक्षण और उसके बाद उत्सव। (पर्दा गिरता है)
अनुप्रयोगः
प्रश्न 1.
उच्चैः पठित्वा अभिनयं कुर्वन्तु
परिक्रम्य, आकाशम् उद्वीक्ष्य, आरुह्य, उपविश्य, प्रणम्य, प्रविश्य, आसनाद्, उत्थानम्।
उत्तरम्:
परिक्रम्य = मञ्च पर चारों ओर घूमकर परिक्रमा का अभिनय कीजिए। आकाशम्
उद्वीक्ष्य = आकाश की ओर ऊपर देखने का अभिनय कीजिए, मानो ऊपर से कोई आवाज़ सुनने का प्रयत्न कर रहे हों।
प्रश्न 2.
मञ्जूषायां केचन भावाः लिखिताः। अधोलिखिताभिः पङ्क्तिभिः सह उचितं भावं मेलयत, अभिनयपूर्वकं च पठत
मञ्जूषा
आश्चर्यम्, आशीर्वादः, आदेशः, क्रोधः, चिन्ता, प्रार्थना, उपदेशः, जिज्ञासा, परामर्शः, उत्सुकता
उत्तरम्:
प्रश्न 3.
अधोलिखितप्रातिपदिकानां प्रथमाविभक्तौ एकवचने सम्बोधने च एकवचने रूपं लिखत –
उत्तरम्:
प्रश्न 4.
अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृतिप्रत्ययवियोजनं संयोजनं वा कुरुत –
उत्तरम्:
प्रश्न 5.
अधोलिखितेषु वाक्येषु क्तान्तविशेषणानि योजयत
(क) समिद्भिः …………… छदिप्रान्तः।
(ख) …………………….. भित्तयः।
(ग) भवद्भिः एव प्रोत्साह्य ……………. वृषलः।
(घ) वृषल! स्वयम ……………….. राज्ञाम् एते दोषाः सम्भवन्ति।
(ङ) सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि ……………. प्रदेशाः संस्क्रियन्ताम्।
(च) अयम् …………. एव देवः चन्द्रगुप्तः।
(छ) ततः प्रविशति आसनस्थः ………………. चिन्तां नाटयन् चाणक्यः।
(ज) म्लेच्छबलेन ………………. पर्वतकपुत्रः मलयकेतुः अस्मान् अभियोक्तुम् उद्यमः।
उत्तरम्:
(क) समिद्भिः अतिनमितः छदिप्रान्तः।
(ख) जीर्णाः भित्तयः।
(ग) भवद्भिः एव प्रोत्साह्य कोपितः वृषलः।
(घ) वृषल! स्वयम् अनभियुक्तानाम् राज्ञाम् एते दोषाः सम्भवन्ति।
(ङ) सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि स्थिताः प्रदेशाः संस्क्रियन्ताम्।
(च) अयम् आगतः एव देवः चन्द्रगुप्तः।
(छ) ततः प्रविशति आसनस्थः स्वभवनगतः चिन्तां नाटयन् चाणक्यः।
(ज) म्लेच्छबलेन परिवृतः पर्वतकपुत्रः मलयकेतुः अस्मान् अभियोक्तुम् उद्यमः।
प्रश्न 6.
अधोलिखितकथनानां वाच्यपरिवर्तनं पाठात् चित्वा लिखत –
(क) प्रभवः निष्प्रयोजनम् अधिकारिणः न आह्वयन्ति।
(ख) (भवान्) अस्मान् उपालब्धुम् आहूतवान्।
(ग) शिष्यः गुरोः आज्ञां पालयेत्।
(घ) अतः पृच्छामि।
(ङ) अतएव श्रोतुम् इष्यते।
(च) निस्पृहत्यागिनः राजानं तृणम् इव मन्यन्ते।
(छ) स्वयमेव देवः अवलोकितवान्।
(ज) भवन्तः एव प्रोत्साह्य वृषलं कोपितवन्तः।
(झ) सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि स्थितान् प्रदेशान् संस्कुर्वन्तु।
(अ) पुष्पमालाभिः स्तम्भाः अलक्रियन्ताम्।
उत्तरम्:
(क) प्रभुभिः निष्प्रयोजनम् अधिकारिभिः न आहूयन्ते।
(ख) (भवद्भिः) वयम् उपालब्धुम् आहूताः।
(ग) शिष्येण गुरोः आज्ञा पालनीया।
(घ) अतः पृच्छ्य ते।
(ङ) अतएव श्रोतुमिच्छामि।
(च) निस्पृहत्यागिभिः राजा तृणम्: इव मन्यते।
(छ) स्वयमेव देवेन अवलोकितम्।
(ज) भवद्भिः एव प्रोत्साह्य वृषलः कोपितः।
(झ) सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि स्थिताः प्रदेशाः संस्क्रियन्ताम्।
(ब) पुष्पमालाभिः स्तम्भान् अलङ्कुर्वन्तु।
प्रश्न 7.
पाठात् तां पंक्तिं चित्वा लिखत यया ज्ञायते
(क) चाणक्यः आचार्यः आसीत्।
(ख) चाणक्यः स्वाभिमानी आसीत्। सः कस्मादपि न बिभेति स्म।
(ग) चन्द्रगुप्तः धर्मवृत्तिपरकः आसीत्।
(घ) राक्षसः नाम नन्दस्य मन्त्री चाणक्येन सह स्पर्धा कर्तुम् इच्छति स्म।
(ङ) चाणक्यस्य गृहं जीर्णकुटीरम् इव आसीत्।
(च) कञ्चुकी चाणक्यात् बिभेति स्म।
(छ) चाणक्यः प्रजायाः धनस्य अपव्ययं सोढुं न समर्थः।
(ज) चन्द्रगुप्तः चाणक्यस्य राज्यकार्येषु हस्तक्षेपेण राज्यं बन्धनम् इव मन्यते स्म।
उत्तरम्:
(क) आर्य! आचार्यचाणक्यं द्रष्टुम् इच्छामि।
(ख) उपालब्धुं तर्हि वयम् आहूताः। प्रथमं मयापि तव आज्ञायाः उल्लंघनम् एव।
(ग) आर्य वैहीनरे! आभ्यां वैतालिकाभ्यां सुवर्णशतसहस्रं दापय। अहो, राज्यं हि नाम धर्मवृत्तिपरकस्य नृपस्य कृते महत् कष्टदायकम्।
(घ) कथं स्पर्धते मया सह दुरात्मा राक्षसः?
(ङ) अत्र शुष्यमाणैः समिद्भिः अतिनमितः छदिप्रान्तः जीर्णाः भित्तयः।
(च) आर्य, दैवेन एव अहम् आर्यस्य चरणयोः प्रेषितः।
(छ) किम् अस्थाने महान् प्रजाधनापव्ययः?
(ज) आर्येण एव सर्वत्र निरुद्धचेष्टस्य मे बन्धम् इव राज्यम्, न राज्यम् इव।
प्रश्न 8.
अधोलिखिताः पङ्क्तीः कः कं प्रति कथयति?
उत्तरम्:
प्रश्न 9.
अधोलिखिते चाणक्यगृहस्य वर्णने एक तथ्यम् अशुद्धम् अस्ति, तत् चिह्नीकुरुत
उत्तरम्:
(क) शुद्धम्
(ख) शुद्धम्
(ग) शुद्धम्
(घ) शुद्धम्
(ङ) अशुद्धम्।
प्रश्न 10.
प्रश्नान् उत्तरत
उत्तरम्:
(क) कौमुदीमहोत्सवः चन्द्रगुप्तस्य आज्ञया आघोषितः आसीत्।
(ख) मलयकेतुः चन्द्रगुप्तस्य राज्यम् आक्रान्तुम् उद्यतः भवति।
(ग) मलयकेतुः पितृवधात् क्रुद्धः आसीत्।
(घ) दुर्गस्य संस्कारः अपेक्षितः आसीत्।
(ङ) चाणक्यः चन्द्रगुप्तं ‘वृषल’ इति सम्बोधयति।
(च) वैहीनरिः कञ्चुकिनः नाम आसीत्।
(क्ष) चाणक्यस्य मतानुसार राष्ट्रस्य चिन्ता गरीयसी।
पाठ-विकासः
(क) कविपरिचयः
मुद्राराक्षसं नाम नाटकं विशाखदत्तेन विरचितम्। अस्य पितुः नाम महाराजः भास्करदत्तः आसीत्। प्रायः विद्वांसः एनं गुप्तसाम्राज्यस्य चन्द्रगुप्तद्वितीयस्य समकालिक मन्यन्ते। अस्य काल: चतुर्थशताब्दी आसीत। अस्य दृष्टिकोणः अतीव उदारः, सर्वधर्मान् प्रति समभावम् एवं दर्शयति।
(ख) मुद्राराक्षसनाटकस्य नामवैशिष्टयम्
मुद्रया जितः राक्षसः यस्मिन् तत् मुद्राराक्षसम्।
मुद्राराक्षसं राजनीतिम् अधिकृत्य लिखितम् अद्वितीयं नाटकम् अस्ति। अस्मिन् नाटके अस्ति वीररसस्य प्राधान्यम्; नायिकापात्रस्य अभावः; विदूषकस्य अभावः; रक्तपातं विना बुद्धिचातुर्येण जयः, अमात्यराक्षसस्य हृदयपरिवर्तनं न तु युद्धेन अपितु नीतिबलेन; देशहितचिन्तनम् एव सर्वोपरि।
(ग) नाट्यविषयकपारिभाषिकशब्दानां परिचयः
नान्दी
नाटकस्य प्रारम्भे विघ्नविनाशाय स्तुतिः।
परिभाषा –
आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात् प्रयुज्यते।
देवद्विजनृपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता।। (साहित्यदर्पणात्)
सरलार्थ –
(क) कवि परिचय –
मुद्राराक्षस नामक नाटक विशाखदत्त के द्वारा रचा गया। विशाखदत्त (रचयिता) के पिता का नाम महाराज भास्करदत्त था। प्रायः विद्वान इसे गुप्तसम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन मानते हैं। इनका समय ईसा की चौथी शताब्दी था। इनका दृष्टिकोण बहुत उदार, सर्वधर्मों के प्रति समान भाव को दर्शानवाला था।
(ख) ‘मुद्राराक्षस’ नाटक के नाम की विशेषता
जिस नाटक के कथानक में मुद्रा (seal) के द्वारा (मन्त्री) राक्षस को जीता गया है, उस नाटक का नाम मुद्राराक्षस रखा गया है। मुद्राराक्षस राजनीति को लक्ष्य करके लिखा गया अद्वितीय नाटक है। इस नाटक में वीर रस की प्रधानता, नायिका पात्र का अभाव, विदूषक का अभाव, बिना रक्तपात के बुद्धि की चतुराई से विजयप्राप्ति, अमात्य राक्षस का हृदय परिवर्तन युद्ध से नहीं अपितु नीतिबल से होता है। देशहित की चिन्ता ही सबसे ऊपर रहती है।
(ग) नाट्यविषयक पारिभाषिक शब्दों का परिचय
नान्दी – नाटक के शुरू में विघ्नों (तापत्रय) की शान्ति के लिए स्तुति।
परिभाषा – (साहित्यदर्पण से) क्योंकि इसके द्वारा देवता, ब्राह्मण या राजा आदि की स्तुति (अभिनन्दन) आशीर्वादात्मक शब्दों के माध्यम से की जाती है अतः इसे नान्दी कहते हैं।
सूत्रधारः
सूत्रं प्रयोगानुष्ठानं धारयतीति सूत्रधारः।
मञ्चसञ्चालनस्य सर्वम् उत्तरदायित्वम् अस्य एव भवति।
परिभाषा – नाट्यस्य यदनुष्ठानं तत्सूत्रं स्यात् सबीजकम्।
रंगदैवतपूजाकृत् सूत्रधार इति स्मृतः।।
सरलार्थ-सूत्रधार – जो नाटक के अभिनय के कार्य के सूत्र (व्यवस्था) को धारण करता है वह सूत्रधार होता है। रङ्गमञ्च के संचालन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सूत्रधार का ही होता है।
परिभाषा – नाट्य का जो बीज सहित अनुष्ठान है, वह सब ‘सूत्र’ कहलाता है। रंग, देवता की पूजा करनेवाला सूत्रधार कहा जाता है।
कञ्चुकिन् –
परिभाषा – अन्तःपुरचरो वृद्धो विप्रो गुणगणान्वितः।
सर्वकार्यार्थकुशलः कञ्चुकीत्यभिधीयते।।
सरलार्थ – अन्तःपुर (रनिवास) में विचरण करनेवाला, बूढ़ा, गुणसमूह से युक्त तथा सब कार्यों के सम्पादन में कुशल ब्राह्मण कञ्चुकी कहलाता है!
स्वगतम् –
अश्राव्यं खलु यद्वस्तु तदिह स्वगतं मतम्।
सरलार्थ – जो निश्चय ही रंगमंच पर उपस्थित पात्रों को न सुनाने योग्य कथन होता है, उसे ही नाटक में ‘स्वगतम्’ कहा गया है।
प्रकाशम्
‘सर्वश्राव्यम्’ प्रकाशं स्यात्।
सरलार्थ – जो रङ्गमञ्च पर उपस्थित सब पात्रों के सुनाने योग्य कथन होता है, उसे ‘प्रकाशम्’ कहते हैं।
विदूषकः
कुसुमवसन्ताद्यभिधैः कर्मवपुर्वेशभावाद्यैः।
हास्यकरः कलहरतिर्विदूषकः स्यात् स्वकर्मज्ञः।।
सरलार्थ – कुसुम, वसन्त आदि नामों से, कर्म, शरीर, वेश तथा भाव आदि के द्वारा हास्य उत्पन्न करनेवाला तथा कलह प्रेमी एवं अपने कार्य से परिचित व्यक्ति विदूषक होता है।
भरतवाक्यम्
नाटकाभिनयसमाप्ती सामाजिकेभ्यः नटेन आशीर्दीयते इत्यर्थः।
सरलार्थ – नाटक के अभिनय की समाप्ति पर सामाजिकों के लिए नट की ओर से दिया गया आशीर्वचन (भरतवाक्यम्) होता है। प्रस्तुत पाठ में नान्दी तथा भरतवाक्य व सूत्रधार नहीं है।
आकाशभाषितम्
आकाशे लक्ष्यं बद्ध्वा यद् उच्यते तत् आकाशभाषितम्
सरलार्थ – आकाश मे लक्ष्य करके जो कहा जाता है वह आकाशभाषितम् होता है।
प्रस्तुत पाठ में नाटक के आरम्भ में प्रासाद के अधिकारियों को सम्बोधन करके आकाश को लक्ष्य करके दो बार जो कहा गया है वह आकाशभाषित है।
अतिरिक्त-अभ्यासः
प्रश्न: 1.
अधोलिखित नाटयांशस्य पाठं कृत्वा तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखित
(क) कञ्चुकी-एष सुगाङ्गप्रासादः।
चाणक्यः- (नाट्येन आरुह्य अवलोक्य च) अये सिंहासनम् अध्यास्ते वृषलः! (उपसृत्य) विजयताम् वृषलः।
राजा – (आसनाद् उत्थाय) आर्य! चन्द्रगुप्तः प्रणमति। (इति पादयोः पतति)
चाणक्य:- (पाणौ गृहीत्वा) उत्तिष्ठ, उत्तिष्ठ, वत्स! विजयताम्।
राजा – आर्यप्रसादात् अनुभूयत एव सर्वम्। तदुपविशतु आर्यः।
चाणक्यः- वृषल! किमर्थं वयम् आहूताः?
राजा – आर्यस्य दर्शनेन आत्मानम् अनुग्रहीतुम्। चाणक्यः-अलम् अनेन विनयेन। न निष्प्रयोजनं प्रभुभिः आहूयन्ते अधिकारिणः।
राजा – आर्य! कौमुदीमहोत्सवस्य प्रतिषेधे किं फलम् आर्यः पश्यति?
चाणक्यः- (स्मितं कृत्वा) उपालब्धुं तर्हि वयम् आहूताः।
राजा – शान्तं पापं, शान्तं पापम्। नहि, नहि, विज्ञापयितुम्।
चाणक्यः- यदि एवं तर्हि शिष्येण गुरोः आज्ञा पालनीया।
राजा – एवम् एतत्। कः सन्देहः? किन्तु न कदाचित् आर्यस्य निष्प्रयोजना प्रवृत्तिः। अतः पृच्छ्यते।
चाणक्यः- न प्रयोजनम् अन्तरा चाणक्यः स्वप्नेऽपि चेष्टते।
राजा – अतएव श्रोतुम् इच्छामि।
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) चन्द्रगुप्ताय चाणक्यः कं पदं प्रयुज्यते?
उत्तरम्:
वृषल
(ii) कः चाणक्यस्य पादयोः पतति?।
उत्तरम्:
राजा (चन्द्रगुप्तः)
(iii) प्रभुभिः निष्प्रयोजनं के न आहूयन्ते।
उत्तरम्:
अधिकारिणः
(iv) चन्द्रगुप्तेन चाणक्यः किमर्थम् आहूतः?
उत्तरम्:
विज्ञापयितुम्
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
राजा चाणक्यं कथं द्रुष्टम् इच्छति?
उत्तरम्:
राजा चाणक्यम् आत्मनम् अनुग्रहीतुं द्रष्टुम इच्छति।
III. निर्देशानुसारम् उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) संवादे ‘प्रवृत्तिः’ पदस्य विशेषणपदं किम्?
(ii) ‘चेष्टते’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
उत्तरम्:
(i) निष्प्रयोजना
(ii) चाणक्यः
(ख) कञ्चुकी – (परिक्रम्य, आकाशम् उद्वीक्ष्य) भो: भोः प्रासादाधिकृताः पुरुषाः! देवः चन्द्रगुप्तः वः विज्ञापयति कौमुदीमहोत्सव-कारणतः अतिरमणीयं कुसुमपुरम् अवलोकयितुम् इच्छामि इति। अतः सुगाङ्गप्रासादस्य उपरि स्थिताः प्रदेशाः संस्क्रियन्ताम्। (पुनः आकाशे) किं ब्रूथ? कौमुदी-महोत्सवः प्रतिषिद्धः? आः किम् एतेन वः प्राणहरेण कथाप्रसङ्गेन? यथा आदिष्टं, चन्दनवारिणा भूमिं शीघ्रं सिञ्चन्तु। पुष्पमालाभिः स्तम्भान् अलङ्कुर्वन्तु। किं ब्रूथ? आर्य! इदम् अनुष्ठीयते देवस्य शासनम् इति। भद्राः! त्वरध्वम् त्वरध्वम्। अयमागतः एव देवः चन्द्रगुप्तः।
I. एकपदेन उत्तरत – (1/2 x 2 = 1)
(i) नृपः कीदृशं कुसुमपुरम् अवलोकयितुम् इच्छति?
(ii) कः जनान् विज्ञापयति?
उत्तरम्:
(i) अतिरमणीयम्
(ii) देव-चन्द्रगुप्तः
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 x 2 = 2)
(i) नृपः कथं कुसुमपुरम् अवलोकयितुम् इच्छति?
(ii) चन्दनवारिणा प्रासादाधिकृताः पुरुषाः किं कुर्वन्तु?
उत्तरम्:
(i) नृपः कौमुदीमहोत्सव-कारणतः अति रमणीयं कुसुमपुरम् अवलोकयितुम् इच्छति।
(ii) चन्दनवारिणा प्रासाधिकृताः पुरुषाः भूमिं शीघ्रं सिञ्चन्तु।.
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) “शीघ्रं कुरु” अस्य पदस्य अर्थे संवादे किं पदम् आगतम्?
(ii) ‘आगतः’ इति क्रियापदस्य संवादे कर्तृपदं किम् अस्ति?
उत्तरम्:
(i) त्वरध्वम्
(ii) देवः चन्द्रगुप्तः
(ग) (ततः प्रविशति आसनस्यः स्वभवनगतः चिन्तां नाटयन् चाणक्यः)
चाणक्यः – (आकाशे लक्ष्यं बद्ध्वा) कथं स्पर्धते मया सह दुरात्मा राक्षस! राक्षस! विरम विरम अस्माद् दुर्व्यसनात्।।
कञ्चुकी – (प्रविश्य) (परिक्रम्य अवलोक्य च) इदम् आर्यचाणक्यस्य गृहम्। अहो राजाधिराजमन्त्रिणो विभूतिः। तथाहि गोमयानाम् उपलभेदकम् एतत् प्रस्तरखण्डम्, इतः शिष्यैः आनीतानां दर्भाणां स्तूपः, अत्र शुष्यमाणैः समिद्भिः अतिनमितः छदिप्रान्तः जीर्णाः भित्तयः। अतएव निस्पृहत्यागिभिः एतादृशैः जनैः राजा तृणवद् गण्यते। (भूमौ निपत्य) जयतु आर्यः।
चाणक्यः – वैहीनरे! किम् आगमन-प्रयोजनम्?
कञ्चुकी – देवः चन्द्रगुप्तः आर्य शिरसा प्रणम्य विज्ञापयति-यदि कार्ये बाधा न स्यात् तर्हि आर्य द्रष्टुम् इच्छामि।
चाणक्यः – एवम्! वृषल: मां द्रष्टुम् इच्छति। वैहीनरे! किं ज्ञातः कौमुदीमहोत्सव-प्रतिषेधः?
कञ्चुकी – अथ किम!
चाणक्यः – केन कथितम्?
कञ्चुकी – स्वयमेव देवेन अवलोकितम्।
चाणक्यः – आः ज्ञातम्! भवद्भिः एव प्रोत्साह्य कोपितः वृषलः। किम् अन्यत्?
कञ्चुकी – (भयं नाटयन्) आर्य, देवेन एव अहम् आर्यस्य चरणयोः प्रेषितः।
चाणक्यः – कुत्र वर्तते वृषलः?
कञ्चुकी – सुगाङ्गप्रासादे।
चाणक्यः – सुगाङ्गप्रासादस्य मार्गम् आदेशय।
कञ्चुकी – इतः इतः आर्य! (उभौ परिक्रामतः)
I. एकपदेन उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) आर्यचाणक्यस्य गृहस्य छदिप्रान्तः शुष्यमाणैः समिद्भिः कथं जातः?
(ii) राजा चन्द्रगुप्तेन कः ज्ञात:?
उत्तरम्:
(i) अतिनमितः
(ii) कौमुदी महोत्सव-प्रतिषेधः
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (2 x 1 = 2)
(i) कीदृशैः जनैः राजा तृणवद् गण्यते?
उत्तरम्:
निस्पृहत्यागिभिः जनैः राजा तृणवद् गण्यते।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (2 x 2 = 1)
(i) “काष्ठैः” इत्यस्य पदस्य कः पर्यायः संवादे प्रयुक्तः?
(ii) संवादे ‘कथं स्पर्धते मया सह’ अत्र ‘मया’ इति सर्वनाम पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
उत्तरम्:
(i) समिद्भिः
(ii) चाणक्याय
(घ) (नेपथ्ये वैतालिको काव्यपाठं कुरुतः)
राजा – आर्य वैहीनरे! आभ्यां वैतालिकाभ्यां सुवर्णशतसहस्रं दापय।
चाणक्यः – (सक्रोधम्) वैहीनरे! तिष्ठ तिष्ठ। न गन्तव्यम्। वृषल! किम् अस्थाने महान् प्रजा-धनापव्ययः?
राजा – (सक्रोधम्) आर्येण एव सर्वत्र निरुद्धचेष्टस्य मे बन्धनम् इव राज्यं, न राज्यम् इव।
चाणक्यः – वृषल! स्वयम् अनभियुक्तानां राज्ञाम् एते दोषाः सम्भवन्ति।
राजा – यद्येवं तर्हि कौमुदीमहोत्सव-प्रतिषेधस्य तावत् प्रयोजनं श्रोतुमिच्छामि।
चाणक्यः – कौमुदीमहोत्सवस्य आयोजनस्य प्रयोजनं ज्ञातुमिच्छमि।
राजा – प्रथमं मम आज्ञायाः पालनम्।
चाणक्यः – प्रथमं ममापि तव आज्ञायाः उल्लंघनम् एव। अथ अपरम् अपि प्रयोजनं श्रोतुमिच्छसि तदपि कथयामि।
राजा – कथ्यताम्।
चाणक्यः – वत्स! श्रूयताम् अवधार्यताम् च। पितृवधात् क्रुद्धः राक्षसोपदेशप्रवणः महीयसा म्लेच्छबलेन परिवृतः पर्वतक-पुत्रः मलयकेतुः अस्मान् अभियोक्तुम् उद्यतः। सोऽयं व्यायामकालो, न उत्सवकालः इति। अतः इदानीं दुर्गसंस्कारः प्रारब्धव्यः। अस्मिन् समये किं कौमुदी-महोत्सवेन इति प्रतिषिद्धः। राष्ट्रचिन्ता ननु गरीयसी। प्रथम राष्ट्रसंरक्षणम् ततः उत्सवाः इति। (पटाक्षेपः)
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 2 = 1)
(i) कीदृशाणां राज्ञाम् दोषाः सम्भवन्ति?
(ii) चाणक्यानुसारेण अयं कीदृशः कालः वर्तते?
उत्तरम्:
(i) स्वयमनभियुक्तानाम्
(ii) व्यायामकालः
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 x 2 = 2)
कीदृशो मलयकेतुः चाणक्यम् अभियोक्तुम् उद्यतः?
उत्तरम्:
पितृवधात् क्रुद्धः राक्षसोपदेशप्रवणः महीयसा म्लेच्छबलेन परिवृतः पर्वतक पुत्रः मलयकेतुः चाणक्यम् अभियोक्तुम् उद्यतः।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) संवादे ‘गुणाः’ इत्यस्य पदस्य कः विपर्ययः प्रयुक्तः?
(ii) ‘मे बन्धनम् इव राज्यम्’ अत्र ‘मे’ सर्वनाम पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
उत्तरम्:
(i) दोषाः
(ii) राज्ञे चन्द्रगुप्ताय
प्रश्न: 2.
I. इदं वाक्यं कः कम् कथयति? (1 + 1 = 2)
(i) भद्राः! त्वरध्वम्, त्वरध्वम्। अयमागतः एव देवः चन्द्रगुप्तः।
(ii) आर्य! आचार्य चाणक्यं द्रष्टुम् इच्छामि।
(iii) आः ज्ञातम्! भवद्भिः एव प्रोत्साह्य कोपितः वृषलः।
(iv) वृषल! किम् अस्थाने महान् प्रजा-धनापव्ययः?
उत्तरम्:
(i) कः- कञ्चुकी, कम्-प्रासाधिकृतान पुरुषान्।
(ii) कः- राजा, कम्-कञ्चुकीम्।
(iii) कः- चाणक्यः, कम्-कञ्चुकीम्।
(iv) कः- चाणक्यः , कम्-राजानम्।
II. ग्रन्थस्य लेखकस्य च नामनी लिखत (1 x 1 = 2)
(i) आर्य वैहीनरे! सुगाङ्गमार्गम् आदेशय।
(ii) अतएव निस्पृहत्यागिभिः एतादृशैः जनैः राजातृणवद् गण्यते।
(iii) यदि एवं तर्हि शिष्येण गुरोः आज्ञा पालनीया।
(iv) प्रथम राष्ट्रसंरक्षणम् ततः उत्सवाः इति।
उत्तरम्:
(i) ग्रन्थस्य नाम-मुद्राराक्षसः
लेखकस्य नाम-श्री विशाखदत्तः
(ii) ग्रन्थस्य नाम-मुद्राराक्षसः
लेखकस्य नाम-श्री विशाखदत्तः
(iii) ग्रन्थस्य नाम-मुद्राराक्षसः
लेखकस्य नाम-श्री विशाखदत्तः
(iv) ग्रन्थस्य नाम-मुद्राराक्षसः
लेखकस्य नाम-श्री विशाखदत्तः
प्रश्न: 3.
I. निम्नलिखितानां पङ्क्तिनां दत्तेषु भावेषु शुद्धं भावं चित्वा लिखत (1 x 2 = 2)
(क) राज्यं हि नाम धर्मवृत्तिपरकस्य नृपस्य कृते महत् कष्टदायकम्।
अर्थात् –
(i) धर्मपालकः नृपः राज्येन महत् कष्टम् अनुभवति।
(ii) धर्मपालकाय नृपाय राज्यं महत् कष्टदायकं भवति।
(iii) राज्यं तु अतीव कष्टेन नृपः पाल्यति।
उत्तरम्:
(ii) धर्मपालकाय नृपाय राज्यं मतत् कष्टदायकं भवति।
(ख) अतएव निस्पृहत्यागिभिः एतादृशैः जनैः राजा तृणवद् गण्यते।
अर्थात् –
(i) लोभयुक्ताः जनाः नृपम् किञ्चिदपि महत्त्वं न यच्छन्ति।
(ii) लोभरहिताः जनाः राजानम् किञ्चिद् महत्त्वं यच्छन्ति।
(iii) लोभरहिताः त्यागिनः नृपाय किञ्चिदपि महत्त्वं न यच्छन्ति।
उत्तरम्:
(iii) लोभरहिताः त्यागिनः नृपाय किञ्चिदपि महत्त्वं न यच्छन्ति।
II. उचित पदैः रिक्तस्थानानि पूरयन् भावपूर्ति करोतु भवान् (1/2 x 4 = 2)
(क) “न खलु आर्यचाणक्येन अपहृतः प्रेक्षकाणाम् अतिशय रमणीयः चक्षुषो विषयः?’
अस्य भावोऽस्ति –
नृपः चन्द्रगुप्तः कञ्चुकीम् वदति यत् कुसुमपुरे कौमुदीमहोत्सवस्य अधुना यावत् (1) …………… न अभवत्। कदाचित् आर्य चाणक्यः एव (2) ………….. अतीव सुन्दरः (3) ………….. विषयः अपहृतः एव। अन्यथा (4) ………….” आज्ञायाः उल्लंघनं कर्तुंकः शक्यः भवेत्?
(ख) “न निष्प्रयोजनं प्रभुभिः आहूयन्ते अधिकारिणः’।
अर्थात् –
महामन्त्री चाणक्यः नृपं चन्द्रगुप्तं तस्य विनये विरामं यच्छन् वदति यत् मम आह्वानस्य प्रयोजनं किम्? यतः कदापि (5) ……………. स्वम् अधिकारिणं (6) ……………. विना न आह्वयति। तस्य (7) ……………. किञ्चिद् अपि प्रयोजनं तु भवति एव। अतः (8) ……………. कथं माम्आ ह्वयत्।
मञ्जूषा – प्रेक्षकाणाम्, नृपस्य, प्रयोजनम्, नृपः, भवान्. आरम्भणम्, नेत्राणाम्, आह्वाने!
उत्तरम्:
- आरम्भणम्
- प्रेक्षकाणाम्
- नेत्राणाम्
- नृपस्य
- नृपः
- प्रयोजनम्
- आह्वाने!
- भवान्
प्रश्नः 4.
अधोलिखितानां वाक्यानां कथाक्रमानुसारं पुनर्लेखनं कुरुत (1/2 x 8 = 4)
(क) (i) आः ज्ञातम्! भवद्भिः एव प्रोत्साह्य कोपितः वृषलः।
(ii) एवम्! वृषलः मां द्रुष्टुम् इच्छति। वैहीनरे! किं ज्ञातः कौमुदीमहोत्सव-प्रतिषेधः?
(iii) इदम् आर्य चाणक्यस्य गृहम्। अहो राजाधिराजमन्त्रिणो विभूतिः।
(iv) अत्र शुष्यमाणैः समिद्भिः अतिनमितः छदिप्रान्तः।
(v) कथं स्पर्धते मया सह दुरात्मा राक्षस:?
(vi) आर्य, देवेन एव अहम् आर्यस्य चरणयोः प्रेषितः।
(vii) सुगाङ्ग प्रासादस्य मार्गम् आदेशय।
(viii) अतएव निस्पृहत्यागिभिः एतादृशैः जनैः राजा तृणवद् गण्यते।
उत्तरम्:
vii, v, iii, iv, viii, ii, i, vi
(ख) (i) किन्तु न कदाचित् आर्यस्य निष्प्रयोजना प्रवृत्तिः।
(ii) आर्यस्य दर्शनेन आत्मानम् अनुग्रहीतुम्।
(iii) अये सिंहासनम् अध्यास्ते वृषलः।
(iv) न प्रयोजनम् अन्तरा चाणक्यः स्वप्नेऽपि चेष्टते।
(v) अलम् अनेन विनयेन।
(vi) आर्य! चन्द्रगुप्तः प्रणमति।
(vii) यदि एवं तर्हि शिष्येण गुरोः आज्ञा पालनीया।
(viii) आर्य! कौमुदीमहोत्सवस्य प्रतिषेधे किं फलम् आर्यः पश्यति।
उत्तरम्:
iii, vi, ii, v, viii, vii, i, iv
(ग) (i) कौमुदी महोत्सवस्य प्रतिषेधस्य तावत् प्रयोजनं श्रोतुमिच्छामि।
(ii) अस्मिन् समये कि कौमुदी महोत्सवेन? इति प्रतिषिद्धः।
(iii) वृषल! स्वयम् अनभियुक्तानां राज्ञाम् एते दोषाः सम्भवन्ति।
(iv) आर्य वैहीनरे! आभ्यां वैतालिकाभ्यां सुवर्णशतसहस्रं दापय।
(v) कौमुदी महोत्सवस्य आयोजनस्य प्रयोजनं ज्ञातुमिच्छामि।
(vi) राष्ट्रचिन्ता ननु गरीयसी! प्रथम राष्ट्र-संरक्षणम् ततः उत्सवाः इति।
(vii) पितृवधात् क्रुद्धः राक्षसोपदेश प्रवणः महीयसा म्लेच्छबलेन परिवृतः पर्वतकपुत्रः मलयकेतुः अस्मान् अभियोक्तुम् उद्यतः।
(viii) आर्येण एव सर्वत्र निरुद्धचेष्टस्य मे बन्धनम् इव राज्यम्, न राज्यम् इव।
उत्तरम्:
iv, viii, iii, i, U, vii, ii, vi
प्रश्न: 5.
प्रदत्त पङ्क्तिषु प्रसंगानुसारं श्लिष्ट पदानाम् अर्थलेखनम् –
उत्तरम्:
(i) (घ)
(ii) (क)
(iii) (च)
(iv) (ज)
(v) (छ)
(vi) (ग)
(vii) (ख)
(viii) (ङ)