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CBSE Class 11 Hindi Katha-Patkatha

CBSE Class 11 Hindi कथा-पटकथा Katha-Patkatha

कथा :

किस भी फ़िल्म यूनिट या धारावाहिक बनाने वाली कंपनी को ‘पटकथा’ तैयार करने के लिए, सबसे पहले जो चीज़ चाहिए होती है, वो है ‘कथा’। कथा ही नहीं होगी तो पटकथा कैसे कहेगी? अब सवाल यह उठता है कि यह कथा या कहानी हमें कहाँ से मिलेगी? तो इसके कई स्रोत हो सकते हैं हमारे स्वयं के साथ या आसपास की जिंदगी में घटी कोई घटना, अखबार में छपा कोई समाचार, हमारी कल्पनाशक्ति से उपजी कोई कहानी, इतिहास के पन्नों से झाँकता कोई व्यक्तित्व या सच्चा किस्सा अथवा साहित्य की किसी अन्य विधा की कोई रचना। मशहूर उपन्यासों-कहानियों पर फ़िल्म या सीरियल बनाने की परंपरा काफ़ी पुरानी है।

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    अभी कुछ वर्ष पूर्व ही शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास देवदास को हिंदी में तीसरी बार फ़िल्माया गया। इसके अलावा भी हिंदी के कई जाने-माने लेखको-मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मन्नू भंडारी आदि की तमाम रचनाओं को समय-समय पर रुपहले परदे पर उतारा गया है। दूरदर्शन तो अकसर ही साहित्यिक-रचनाओं को आधार बनाकर धारावाहिक, टेलीफ़िल्मों आदि का निर्माण करवाता रहता है। अमेरिका-यूरोप में तो ज़्यादातर कामयाब उपन्यास और नाटक फ़िल्म का विषय बन जाते हैं।

    पटकथा :

    अब मसला उठता है पटकथा लिखने का। फ़िल्म या टी.वी. की पटकथा की संरचना नाटक की संरचना से बहत मिलती है। अंग्रेजी में तो इसे कहते ही ‘स्क्रीनप्ले’ हैं। नाटक की तरह ही यहाँ भी पात्र-चरित्र होते हैं, नायक-प्रतिनायक होते हैं, अलग-अलग घटनास्थल होते हैं, दृश्य होते हैं, कहानी का क्रमिक विकास होता है, वंद्व-टकराहट और फिर समाधान। ये सब कुछ पटकथा के भी आवश्यक अंग होते हैं। मंच के नाटक और फ़िल्म की पटकथा में कुछ मूलभूत अंतर भी होते हैं। पहली चीज़ है दृश्य की लंबाई, नाटक के दृश्य अकसर अधिक लंबे होते हैं और फ़िल्मों में छोटे-छोटे।

    इसी प्रकार नाटक में आमतौर पर सीमित घटनास्थल होते हैं, जबकि फ़िल्म में इसकी कोई सीमा नहीं, हर दृश्य किसी नए स्थान पर घटित हो सकता है। इसकी वजह है दोनों माध्यमों में मूलभूत अंतरनाटक एक सजीव कला माध्यम है, जहाँ अभिनेता अपने ही जैसे जीवंत दर्शकों के सामने, अपने कला का प्रदर्शन करते हैं। सब कुछ वहीं, उसी वक्त घट रहा होता है। जबकि सिनेमा या टेलीविज़न में पूर्व रिकॉर्डेड छवियाँ एवं ध्वनियाँ होती हैं।

    नाटक का पूरा कार्य-व्यापार एक ही मंच पर घटित होता है एक निश्चित अवधि के दौरान। जबकि फ़िल्म या टेलीविज़न की शूटिंग अलग-अलग सेटों या लोकेशनों पर दो दिन से लेकर दो साल तक की अवधि में की जा सकती है इसीलिए नाटक का कार्य-व्यापार, दृश्यों की संरचना और चरित्रों की संख्या आदि को सीमित रखना पड़ता है, लेकिन सिनेमा या टेलीविज़न में ऐसा कोई बंधन नहीं होता। सबसे बड़ी बात नाटक की कथा का विकास ‘लीनियर’ मतलब एक-रेखीय होता है, जो एक ही दिशा में आगे बढ़ता है। जबकि सिनेमा में फ़्लैशबैक या फ़्लैश फ़ॉरवर्ड तकनीकों का इस्तेमाल करके आप घटनाक्रम को किसी भी रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। फ़्लैशबैक वो तकनीक होती है, जिसमें आप अतीत में घटी किसी घटना को दिखाते हैं और फ्लैश फ़ॉरवर्ड में आप भविष्य में होने वाले किसी हादसे को पहले दिखा देते हैं। इन दोनों तकनीकों को हम एक-एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं।

    मान लीजिए हम रांगेय राघव की कहानी गूंगे पर फ़िल्म बना रहे हैं, और हमारी फ़िल्म शुरू होती है सड़क के दृश्य से (जहाँ कुछ किशोर लड़के मिलकर एक दुबले-पतले लड़के को पीट रहे हैं। मार खा रहा लड़का भाग कर एक घर के दरवाजे पर पहुँचता है। घर के भीतर से भाग कर चमेली आती है, उसके साथ उसके छोटे-छोटे बच्चे शकुंतला और बसंता भी हैं।

    चमेली घर की दहलीज़ पर सर रखे, खून से लथपथ गूंगे को देखती है, जो अपनी व्यथा को व्यक्त करने में असमर्थ है और चमेली को वो दिन याद आता है, जिस दिन अनाथालय में पहली बार उसकी मुलाकात गूंगे से हुई थी। अब हम पागलखाने का वो दृश्य दिखाते हैं, जहाँ कुछ दिन पहले चमेली अपनी सहेलियों के साथ गई थी और जहाँ पहली बार उसकी गँगे से मुलाकात हुई थी। यही, वर्तमान से अतीत में जाना, फ़्लैशबैक की तकनीक कहलाता है। फ़्लैश फ़ॉरवर्ड समझने के लिए मोहन राकेश के नाटक अंडे के छिलके का वो दृश्य लेते हैं जहाँ श्याम के बाज़ार जाने के बाद वीना बस ठीक-ठाक कर रही है और उसे वो मोज़ा मिलता है जिसमें अंडे के छिलके भरे हुए हैं।

    वैसे मूल नाटक में यह दृश्य इस प्रकार नहीं है लेकिन अगर इसकी पटकथा लिखी जाए और हम इस दृश्य में फ़्लैश फ़ॉरवर्ड तकनीक का प्रयोग करें तो दृश्य कुछ इस तरह से बनाया जा सकता है कि अचानक वीना के मन में यह विचार कौंधता है कि ये मोज़े उसकी सास जमुना देवी के हाथों लग गए हैं (वो पूरे परिवार तथा पड़ोसियों के सामने मोज़ों में से अंडे के छिलके ज़मीन पर गिर कर उसे बुरा-भला कह रही हैं।

    हम वापस वर्तमान में आते हैं और वीना अपना संवाद पूरा करती है-“कितनी बार कहा छिलके मोज़े में मत रखा करो, कहीं किसी के हाथ लग गए, तो लेने के देने पड़ जाएँगे।” और चाय का पानी हीटर पर रखने के लिए चली जाती है।) यहाँ एक तथ्य गौर करने लायक है, वो यह कि फ़्लैशबैक और फ़्लैश फ़ॉरवर्ड दोनों ही युक्तियों का इस्तेमाल करने के पश्चात वापस वर्तमान में आना ज़रूरी है। ताकि दर्शकों के मन में किसी किस्म का असमंजस न रहे। फ़िल्म या टेलीविज़न माध्यम में एक सुविधा यह भी है कि एक ही समय-खंड में अलग-अलग स्थानों पर क्या घटित हो रहा है, दिखाया जा सकता है।

    पटकथा की मूल इकाई होती है दृश्य। एक स्थान पर, एक ही समय में लगातार चल रहे कार्य व्यापार के आधार पर एक दृश्य निर्मित होता है। इन तीनों में से किसी भी एक के बदलने से दृश्य भी बदल जाता है। हम आपके पाठ्यक्रम में से रजनी का ही उदाहरण लेते हैं दृश्य-एक लीला बेन महिला के फ्लैट में शुरू होता है, समय शायद दोपहर का, क्योंकि उनका बेटा अमित स्कूल से वापस आने वाला है। दृश्य-दो अगले दिन, अमित के स्कूल के हैडमास्टर के कमरे में और वक्त दिन का ही है। दृश्य-तीन उसी दिन, रजनी का फ़्लैट और वक्त है शाम का। ये सारे अलग-अलग लोकेशंस पर अलग-अलग दृश्य हैं।

    दूसरी गौर करने लायक बात है, पटकथा लिखने का विशिष्ट ढंग। हमेशा दृश्य संख्या के साथ दृश्य की लोकेशन या घटनास्थल लिखा जाता है-वो कमरा है, पार्क है, रेलवे स्टेशन है या शेर की माँद। उसके बाद लिखा जाता है घटना का समय-दिन/रात/सुबह/शाम। तीसरी जानकारी जो दृश्य के शुरू में दी जानी ज़रूरी होती है वो ये कि घटना खुले में घट रही है या किसी बंद जगह में, अंदर या बाहर? आमतौर पर ये सूचनाएँ अंग्रेज़ी में लिखी जाती हैं और अंदर या बाहर के लिए अंग्रेजी शब्दों इंटीरियर या एक्सटीरियर के तीन शुरुआती अक्षरों का इस्तेमाल किया जाता है, मतलब INT. या EXT.

    ये पटकथा लिखने का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रारूप है। सिनेमा या टेलीविज़न के कार्यक्रमों के निर्माण में कई टेक्निकल चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है। पटकथा के शुरू में दिए गए संकेत फ़िल्म या टी.वी. के कार्यक्रम के निर्देशक, कैमरामैन, साउंडरिकॉर्डिस्ट, आर्ट डायरेक्टर, प्रोडक्शन मैनेजर तथा उनके सहायकों की अपने-अपने काम में काफ़ी मदद करते हैं। इसी प्रकार दृश्य के अंत में कट टू, डिज़ॉल्व टू, फ़ेड आउट आदि जैसी जानकारी निर्देशक व एडीटर को उनके काम में सहायता पहुँचाती है।

    पाठ से संवाद

    प्रश्नः 1.
    फ़्लैशबैक तकनीक और फ़्लैश फ़ॉरवर्ड तकनीक के दो-दो उदाहरण दीजिए। आपने कई फ़िल्में देखी होंगी। अपनी देखी किसी एक फ़िल्म को ध्यान में रखते हुए बताइए कि उनमें दृश्यों का बँटवारा किन आधारों पर किया गया।
    उत्तरः
    फ़्लैशबैक तकनीक वह होती है जिसमें अतीत में घटी हुई किसी घटना को दिखाया जाता है। फ़्लैश फ़ॉरवर्ड वह तकनीक है जिसमें भविष्य में होनी वाली किसी घटना को पहले दिखा देते हैं। पाठ्यपुस्तक ‘आरोह’ की कहानी ‘गलता लोहा’ में मोहन जब घर से हँसुवे की धार लगवाने के लिए शिल्पकार टोले की ओर जाने लगता है तो वह फ़्लैशबैक में चला जाता है और उसे याद आ जाती है स्कूल में प्रार्थना करना। इसी कहानी में मोहन का लखनऊ पहुंचकर मुहल्ले में सब के लिए घरेलू नौकर जैसा काम करना।

    ‘गलता लोहा’ कहानी में ही मोहन को जब मास्टर त्रिलोक सिंह ने पूरे स्कूल का मॉनीटर बनाकर उस पर बहुत आशाएँ लगा रखी थीं। उस समय मोहन फ़्लैशफॉरवर्ड में जाकर सोच सकता है कि वह एक बहुत बड़ा अफ़सर बन गया है और उसके पास अनेक लोग अपना काम करवाने आये हैं। मोहन जब लखनऊ पढ़ने जाता है तो वहाँ की भीड़-भाड़ देखकर फ़्लैशफॉरवर्ड में जाकर सोचता है कि वह भी अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर बस में बैठकर बहुत बड़े स्कूल में पढ़ने जा रहा है। ‘शोले’ फ़िल्म में वीरू का टंकी पर चढ़ना, धन्नो का टांगा चलाना, गब्बर सिंह का पहाड़ियों पर अपने साथियों के साथ वार्तालाप, डाकूओं से लड़ाई आदि दृश्य घटनाओं के आधार पर बदल जाते हैं।

    प्रश्नः 2.
    पटकथा लिखते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है? और क्यों?
    उत्तरः
    पटकथा लिखते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

    • प्रत्येक दृश्य के साथ होने वाली घटना के समय का संकेत भी दिया जाना चाहिए।
    • पात्रों की गतिविधियों के संकेत भी प्रत्येक दृश्य के प्रारंभ में देने चाहिए। जैसे-रजनी चपरासी को घूर रही है, चपरासी मज़े से स्टूल पर बैठा है। साहब मेज़ पर पेपरवेट घुमा रहा है। फिर घड़ी देखता है।
    • किसी भी दृश्य का बँटवारा करते समय यह ध्यान रखा जाए कि किन आधारों पर हम दृश्य का बँटवारा कर रहे हैं।
    • प्रत्येक दृश्य के साथ होने की सूचना देनी चाहिए।
    • प्रत्येक दृश्य के साथ उस दृश्य के घटनास्थल का उललेख अवश्य करना चाहिए; जैसे-कमरा, बरामदा, पार्क, बस स्टैंड, हवाई अड्डा, सड़क आदि।
    • पात्रों के संवाद बोलने के ढंग के निर्देश भी दिए जाने चाहिए; जैसे-रजनी (अपने में ही भुनभुनाते हुए)।
    • प्रत्येक दृश्य के अंत में डिज़ॉल्व, फ़ेड आउट, कटटू जैसी जानकारी आवश्य देनी चाहिए। इससे निर्देशक, अडीटर आदि निर्माण कार्य में लगे हुए व्यक्तियों को बहुत सहायता मिलती है।
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